बचपन मे एक कहानी सुनी थी जिसमें एक लड़के को उसकी माँ हिदायत देती है कि बेटा अंधेरे में ढूंढने से कुछ नही मिलता। एक दिन बेटे की कोई चीज उसके कमरे में गुम जाती है। वो बाहर सड़क पर स्ट्रीट लाइट के नीचे ढूंढने लगता है। धीरे धीरे गुजरने वाले लोग इकट्ठा होकर ढूंढने लगते है। लड़के की माँ वापस आती है , तब पता चलता है कि वह चीज उसने खोई कमरे में है और ढूंढ रहा सड़क पर।
पूछने पर लड़का जवाब देता है कि रोशनी यहाँ है तो यहाँ खोज रहा।
आतंकवाद को लेकर हमारा रवैया भी ऐसा ही है। हमे सीखा दिया गया है कि सारे धर्म एक समान है। और आतंकवाद का कोई मजहब नही।
इस समानता का घूँट हमे ऐसे पिलाया गया है जिससे हमें लगता है कि सारी सभ्यताओं के गुण दोष भी एक जैसे है।
हमारी अंधता इस स्तर पर है कि हम सड़क पर ही आतंकवाद और उसकी वजह ढूंढ रहे।
ये अंधता एक दो दिन में नही आई है। यह लायी गयी है। इसे लाये है आतंकवाद से सहानुभूति रखने वाले लोग।
कश्मीर के विकल्प पर विचार करने वाले यह भूल जाते है कि कहानी कहाँ से शुरू होती है।
कश्मीर एक फ्री स्टेट था पर उस पर आक्रमण किया पाकिस्तान ने।
पाकिस्तान में किसके साथ न्याय हो रहा? जो आप कश्मीर उन्हें सौपना चाहते है।
कश्मीर के पण्डितो को किसने निकाला?
अगर आतंकवादियों ने तो उनके मकान दुकान तो खाली होंगे?
जिस यासीन मलिक ने लाल चौक के 90 फीसदी जगह पर कब्जा रखा है। वह क्यों चाहेगा कि कश्मीर भारत मे मिल जाये
यह लड़ाई आजादी की नही है। यह उस सब्जबाग की है जहाँ मुस्लिम समझते है कि एक गैर मुस्लिम को बने रहने का कोई हक नही।
यह लड़ाई बेरोजगारी की भी नही है। यह लड़ाई उस माँ की है जो कहती है कि अगर बन्दूक नही उठाएगा तो अललाह को कैसे लगेगा कि उसने ईमान कायम किया।
यह लड़ाई इस्लामी मजहबी अंधो की है।
पर हम इसे यह कहने के बजाय इसे कश्मीर का, भटके जवान का , पाकिस्तान का मुद्दा बना रहे। यह मुद्दा उसी सोच का है जिसमे यह कहा जाता है कि मुसलमानों के साथ अन्याय हो रहा।
( अधिक इस लिंक पर पढ़े https://bayaanvir.blogspot.com/2018/04/blog-post.html?m=1 )
हम जब तक इस मानसिकता से नही लड़ेंगे तब तके कुछ नही हो पायेगा।
सनद रहे मैं ये नही कह रहा कि सब मुस्लिम दोषी है। हर कोई जो इस सच्चाई से जी चुरा रहा। झूठ बतला रहा वह उस खतरे की ओर समाज को ढकेल रहा।
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